बेदर्द जमाने में ,खत-ओ-पैगाम से डरते हैं ||1
दीदार में दिये के हम, पतंगा-से जलते हैं |
रातों को आहट में, हम जुगनू-से जलते हैं ||
रजनी के आँचल में, आहें तो भरते हैं |
करवट में उड़ाएं नींद, उन यादों से डरते हैं||
मगरूर हैं अदाओं में, हमें जो इंकार करते हैं|
हरे जख्म करे हर बार, उसी मुस्कान से डरते हैं||
चुपके से आओ यार इल्तिजा तेरे नाम करते हैं|
खामोश फिज़ाओं में अब हम कोहराम से डरते हैं|
''आनन्द'' मिला दिन-रात, जिसे विसाले -नाम करते हैं|
दानिस्ता नैन किए दो चार, मगर अब अन्जाम से डरते हैं||